जो उन की तरफ़ मेरी चश्म ए इल्तेफ़ात नहीं
कोई उन से कहे चैन सारी रात नहीं
बाजुज़ निगाह ए करम को तो कुछ नहीं मांगा
बिगड़ते क्यों हो बिगड़ने की की बात नहीं
बोहोत हैं जीने के अंदाज़ पर मेरे हमदम
मज़ा ना हो जो ख़ुदी का तो कुछ हयात नहीं
बा-वक़्त ए नज़'आ यां ललचा के देखता क्या है
ये दार ए फ़ानी है राही इसे सबात नहीं
उठो जो अख़्तर ए ख़स्ता जहां से क्या ग़म है
मुझे बताओ अज़ीज़ों किसे ममात नहीं.
POET: HUZOOR TAJUSHSHARIA
