तुम्हारे दर पे जो मैं बारियाब हो जाऊं
क़सम ख़ुदा की शहा कामयाब हो जाऊं
जो पाऊं बोसा ए पाए हुजूर क्या कहना
मैं ज़र्रा शम्स ओ क़मर का जवाब हो जाऊं
मेरी हक़ीक़त ए फ़ानी भी कुछ हक़ीक़त है
मरूं तो आज ख़याल और ख़्वाब हो जाऊं
जहां के क़ौस ए क़ज़ाह से फ़रेब खाए क्यों
मैं अपने क़ल्ब ओ नज़र का हिजाब हो जाऊं
जहां की बिगड़ी उसी आस्तां पर बनती है
मैं क्यों ना वक़्फ़ ए दर ए आं जनाब हो जाऊं
तुम्हारा नाम लिया है तलातुम ए ग़म में
मैं अब तो पार रिसालत मा'अब हो जाऊं
ये मेरी दूरी बदल जाए कुर्ब से अख़्तर
अगर वोह चाहें तो मैं बारियाब हो जाऊं.
POET: HUZOOR TAJUSHSHARIA
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